पुरातन काल से मनुष्य ने अपने जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् की कहानी को जानने का भरसक प्रयास किया है और कई तरह से इसे वर्णित किया है। वास्तव में परमपिता+परमात्मा के अनुसार यह मनुष्य सृष्टि-चक्र आत्माओं और प्रकृति का एक अद्भुत नाटक है, जिसकी हर 5000 वर्ष के बाद पुनरावृत्ति होती है। 5000 वर्ष के इस सृष्टि-चक्र में प्रत्येक आत्मा इस सृष्टि-रूपी रंगमंच पर आकर ये शरीर रूपी वस्त्र धारण कर भिन्न-2 भूमिका अदा करती है। इस सृष्टि-रूपी नाटक को कालक्रमानुसार चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग। प्रत्येक युग की आयु 1250 वर्ष की होती है। सतयुग और त्रेतायुग को मिलाकर ‘स्वर्ग’ कहा जाता है तथा द्वापरयुग और कलियुग को मिलाकर ‘नर्क’ कहा जाता है। स्वर्ग और नर्क इसी सृष्टि पर होते हैं, न कि आकाश या पाताल में। अद्वैतवादी देवताओं के सतयुग और त्रेतायुग में इस सृष्टि पर एक धर्म, एक राज्य, एक भाषा आदि होने तथा देह-अभिमान न होने के कारण सदा सुख, शांति और पवित्रता होती है। सतयुग व त्रेतायुग में आदि सनातन देवी-देवता धर्म था, जिसमें हर आत्मा दिव्यगुण सम्पन्न होने के कारण देवी-देवता कहलाती थी।