आत्मा इस सृष्टि में आई कहाँ से? ये कीट, पशु, पक्षी, पतंगे- वास्तव में ये सब आत्माएँ हैं। सबके अन्दर आत्मा है। इस चित्र में यह पृथ्वी और सूरज, चाँद, सितारे, आकाशतत्व दिखाए हैं। गीता में एक श्लोक आया है, उसमें अर्जुन को भगवान ने बताया है कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ- ‘‘न तद् भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परमं मम।’’ (गीता 15/6) अर्थात् जहाँ सूरज, चाँद, सितारों का प्रकाश नहीं पहुँचता, जहाँ अग्नि का प्रकाश नहीं पहुँचता, वह मेरा परे-ते-परे धाम है, जहाँ का मैं रहने वाला हूँ। यह श्लोक इस बात का प्रमाण है कि भगवान परमधाम के रहने वाले हैं, सर्वव्यापी नहीं हैं। यहाँ साबित किया गया है कि पाँच तत्वों की दुनिया से परे एक और सदा प्रकाशित छठा तुरीया तत्व है ‘ब्रह्मलोक’, जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है ‘सुप्रीमएबोड’, मुसलमानों में कहा जाता है ‘अर्श’ । ‘खुदा अर्श में रहता है, फर्श में नहीं।’ लेकिन अब तो वे भी सर्वव्यापी मानने लगे हैं कि खुदा जर्रे-2 में है। जैनी लोग उसको ‘तुरीया धाम’ मानते हैं। तात्पर्य यह है कि हर धर्म में उस धाम की मान्यता है। हम सब आत्माएँ उस परमधाम की रहने वाली हैं, जहाँ पर सुप्रीम सोल ज्योतिर्बिन्दु भी है, जिसे हिन्दुओं में ‘शिव’ कहते हैं। वे अभोक्ता शिव जन्म-मरण के चक्र से न्यारे हैं। बाकी जितनी भी भोगी आत्माएँ हैं वे सब जन्म-मरण के चक्र में आ जाती हैं। परमधाम में उन आत्माओं की स्थिति का क्रम क्या है? जितना ही इस सृष्टि मंच पर आकर श्रेष्ठ कर्म करने वाली आत्मा है वह उतना ही परे-ते-परे शिव के नज़दीक रहने वाली होगी और जितने ही निष्कृष्ट कर्म करने वाली, पार्ट बजाने वाली आत्मा है, वह उतना ही नीचे की ओर। उनकी संख्या जास्ती होती जाती है। दुष्ट कर्म करने वालों की संख्या जास्ती और श्रेष्ठ कर्म करने वाली देव आत्माओं की संख्या कम है जो 33 करोड़ कही जाती हैं जिनकी संख्या ऊपर की ओर कम होती जाती है वे ही श्रेष्ठ आत्माएँ हैं।
सतयुग के आदि से जब नई सृष्टि का आवर्तन होता है तो सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग क्रमशः पुराने होते जाते हैं। दुनिया की हर चीज़ चार अवस्थाओं से गुजरती है; जैसे- सत्वप्रधान बचपन, सत्वसामान्य किशोर अवस्था, रजोप्रधान जवानी और (तमोप्रधान) बुढ़ापा, फिर खलास। सृष्टि का भी यही नियम है। यह सृष्टि भी चार अवस्थाओं से पसार होती है। सतोप्रधान सृष्टि को ‘सतयुग’ कहा जाता है, रजोप्रधान को ‘द्वापर’ कहा जाता है और तमोप्रधान को ‘कलियुग’ कहा जाता है। ब्रह्मलोक से आत्माओं के उतरने का यही क्रम है कि जितनी श्रेष्ठ आत्माएँ हैं उतना ही श्रेष्ठ युग में उतरती हैं। जो 16 कला सम्पूर्ण आत्माएँ हैं वे सतयुग आदि में उतरती हैं, जो 14 कला से 8 कला तक सम्पूर्ण आत्माएँ हैं वे त्रेतायुग के आदि से अतं तक उतरती हैं, जो 8 कला नीची आत्माएँ हैं वे द्वापर में उतरती हैं और कलियुग 4 कला से कलाहीनता शुरू हो जाती है। कलाहीन आत्माएँ, जिनका धर्म उत्तरोतर दूसरों को ज्यादा दुःख देना ही है, जिनके लिए गीता में आया है- ‘‘मूढा जन्मनि जन्मनि।’’(गीता 16/20) वे घोर नारकीय मनुष्य योनि में आकर गिरती हैं। नीचतम अति दुखदाई आत्माएँ कलियुग के अन्त में आती हैं जब सारी ही आत्माएँ नीचे उतर आती हैं, जिनको वापस जाने का रास्ता नहीं मिलता, बल्कि यहीं जन्म-मरण के चक्र में आती रहती हैं और शरीर द्वारा सुख भोगते-2 तामसी बन जाती हैं।
जैसे बीज है, कई बार बोया जाएगा तो उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। पत्ता छोटा, फल छोटा, वृक्ष छोटा और आखरीन होते-2 वह फल देना ही बन्द कर देता है। तो ऐसे ही आत्माओं का यह हिसाब है कि जब एक बार ऊपर से नीचे आ गईं तो वे नीचे ही उतरती जाती हैं। आप इस सृष्टि के अंतिम अर्धभाग अर्थात् आज से 2500 वर्ष पूर्व की हिस्ट्री ले लीजिए। दुनिया में सुख-शान्ति, दुःख और अशान्ति के रूप में बदलती गई है या सुख-शान्ति बढ़ती गई? हिस्ट्री क्या कहती है? जैसे-2 जनसंख्या बढ़ती गई, ऊपर से आत्माएँ उतरती गईं तो जनसंख्या के अधिक बढ़ने से सृष्टि में दुःख और अशान्ति तो बढ़नी ही बढ़नी है, वह बढ़ती गई। एक अति (end, extremity) होती है कि जब सारी ही आत्माएँ नीचे उतर आती हैं। दुनिया में कीट, पशु-पक्षी, पतंगों, कीटाणु आदि की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश-विदेश में इतनी कीटनाशक दवाइयाँ छिड़की जा रही हैं, तो भी उनकी संख्या में कोई कमी नज़र नहीं आ रही है। मक्खी-मच्छरों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। आखिर ये आत्माएँ कहाँ से आ रही हैं? उसका समाधान गीता के अनुसार ही है; लेकिन स्पष्ट किसी ने नहीं किया। अभी यह बात स्पष्ट हो रही है कि ये आत्माएँ उस आत्म-लोक से आ रही हैं और इसी दुनिया में अधिक से अधिक 84 के जन्म-मरण का चक्र काटते हुए अपना-2 पार्ट बजाती रहती हैं।... For more information, to click link below