सम्पूर्ण सृष्टि में, सम्पूर्ण पहलुओं से मनुष्यों ने भौतिक जगत में अहम तरक्की की है; परन्तु क्या अपनी अनंत भौतिक इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश को ही जीवन कहा जाता है? इच्छाओं को तृप्त करने के इन प्रयासों में हमारा उत्थान हुआ या पतन? वास्तव में सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्यों ने जो-2 मार्ग अपनाए, वही उनके पतन के मूल कारण हैं। खास कलियुग-अंत में अनेक धर्म और उनकी विभिन्नता के कारण लोग एक-दूसरे से घृणा कर, एक-दूसरे के हत्यारे बन पड़ते हैं; परन्तु सत्य बात तो यह है कि सत्य धर्म के वास्तविक अर्थ को न जानने के कारण अधर्म बढ़ता जा रहा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार- यही दुःख के मूल हैं। पाँच विकार आते ही हैं देह समझने से। इनको नष्ट करने का मूल मंत्र भगवान आकर बताते हैं कि अपने को ज्योतिबिंदु आत्मा समझो। आध्यात्मिक का अर्थ ही है- अधि+आत्मिक, आत्मा के अंदर की बात को बताने वाला। देह के अंदर की बातें तो मनुष्य भी बताए रहे हैं, बड़े-2 वैज्ञानिक बताए रहे हैं, डॉक्टर बताए रहे हैं; लेकिन आत्मा क्या है और आत्मा के अंदर अनेक जन्मों की कहानी कैसे छुपी हुई है, वो सिवाय बाप के और कोई नहीं बताए सकता। आज मनुष्य स्व के धर्म को भूल परधर्म में लग गया है। गीता में कहा है- “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।” (गीता 3/35), स्वधर्म में टिकना श्रेष्ठ है।