ध्यान कैसे करें ?

आजकल योग का तात्पर्य शारीरिक योगासन, प्राणायाम या हठयोग समझ लिया जाता है; किन्तु योगासन से तो शारीरिक स्वास्थ्य और कुछ सीमा तक मानसिक स्वास्थ्य मिल सकता है; लेकिन सम्पूर्ण सुख-शांति की प्राप्ति तो केवल आत्मा का परमात्मा के साथ योग से ही हो सकती है। असली अर्थ में इसे योग भी नहीं, अपितु सरल शब्द में ‘याद’ कहते हैं। राजयोग के द्वारा आत्मिक भावना उत्पन्न होती है जिसके कारण जात-पात, धर्म, भाषा को लेकर जो वितंडावाद है वो सभी दूर होने की सम्भावना रहती है। आत्मिक स्थिति के आधार पर प्राप्त मनोबल से निश्चिन्तता आयेगी और अखण्ड शान्ति मिलेगी, अखंड विश्वास पैदा होगा। जिसके बल पर उनमें परख और सही निर्णय करने की शक्ति और स्थिति-परिस्थितियों और  समस्याओं से मुकाबला करने की ताकत आयेगी। और सबसे बड़े-ते-बड़ी प्राप्ति जो और किसी से नहीं मिल सकती,

जिसके लिए गीता में आया है- “इदं ज्ञानं उपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। सर्गे अपि न उपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।”14/2 क्योंकि कहा जाता है ना- “जाको राखे साईंया मार सके न कोय, बाल न बांका कर सके जो जग वैरी होय” ।

वो है विनाश की भयंकरता में भी सुरक्षा, प्रलय के समय भी दु:खी नहीं होना, कुरान में भी लिखा है कि “कयामत के समय खुदा के बंदे बड़े मौज में रहेंगे” । राजयोग के नित्य अभ्यास से आत्मा में पवित्रता, शांति, धैर्य, निर्भयता, नम्रता-जैसे गुणों की धारणा होती है, एक शब्द में कहें तो आत्मा समझने से सारे ही दैवी गुण आ जाते हैं। राजयोग द्वारा हर मनुष्य दिव्य गुण और शक्तियों से संपन्न बनने से, समाज में जो भी दुराचार, अनाचार हो रहे हैं, वो स्वतः ही नियंत्रित हो जायेंगे। राजयोग से सबके प्रति आत्मिक दृष्टि व सम दृष्टि उत्पन्न होने के कारण, समाज में जो भी जाति, वर्ण, कुल व ऊँच-नीच की भावनायें मौजूद हैं, वो सभी मिट जायेंगी। साथ ही धर्म को लेकर होने वाले अनेक लड़ाई-झगड़ों से भी मुक्त वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत नवीन समाज का निर्माण होगा।


योग की असली परिभाषा तो वही बता सकता है जिसने योग में सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त की हो। जिनको शास्त्रों में योगेश्वर कहा है। जिनकी यादगार मूर्ति अथवा चित्र सदैव ध्यानमग्न, निराकारी और नेत्र सदा अर्धोंमिलित चढ़े हुए दिखाए गए हैं। जिनके नाम से ही भारत का प्राचीन राजयोग जाना जाता है।
योग कैसे लगाएँ?  
प्राणायाम - श्रीमद्भगवतगीता में ही बताया गया है “अपाने जुह्वति प्राणं प्राणे अपानं तथा अपरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः”॥ (4/29) भावार्थ – दैहिक श्वाँस रोकने, ग्रहण करने या नियंत्रित करने का तात्पर्य अपने अंदर के शुद्ध या अशुद्ध संकल्पों से है। प्राण है शुद्ध संकल्प और अपान है अशुद्ध ग्लानि के संकल्प। उन्हें त्याग देना चाहिए। अशुद्ध संकल्प अर्थात् निगेटिव एनर्जी निकलना है और शुद्ध संकल्प अर्थात् पॉजिटिविटी को ग्रहण करना है। वास्तव में दोनों को नियंत्रित करने वाला ही योगी है। जो गीता में ही बोला है- “न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन”॥ (6/2) अर्थात् जिसने सब संकल्पों का सम्पूर्ण त्याग नहीं किया वह योगी नहीं होता; परन्तु मनुष्यों ने इसका गलत अर्थ लगा लिया। वे कुम्भक चढ़ाकर, श्वाँस प्रश्वाँस की क्रिया को रोककर घंटों निल अवस्था में बैठ जाते हैं। भगवान ने तो गीता-ज्ञान द्वारा मन को नियंत्रित करना सिखाया, कोई दैहिक आसन नहीं।
मन को नियंत्रित करना - श्रीमद्भगवतगीता में आया है  “असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥” (6/35) अर्थात् निस्संदेह हे महाबाहो! वैराग्य और योगाभ्यास से तीव्रधावी चंचल मन वश में आता है। तभी हमें वह मनोबल की पावर प्राप्त हो सकती है। जो सिर्फ एक जन्म नहीं, जन्म-जन्मान्तर कार्य करती है। इस मनोबल की पावर के उदाहरण हिस्ट्री में भी मौजूद हैं कि बाबर जैसे सिपाही मनोबल की पावर से एक ही जन्म में सिपाही से सम्राट बन गए, विष्णु गुप्त जैसे साधारण बालक आचार्य चाणक्य जैसे असाधारण विद्वान बन गए। सम्पूर्ण भारत को जीतने वाला अकबर महाराणा प्रताप को नहीं जीत पाया। सिर्फ पुरुष ही नहीं, अनेक वीरांगनाएँ भी हैं। आज यह सबसे बड़ी मनोबल की पावर क्षीण होती जा रही है। जिसका प्रमाण है- 500 वर्ष पहले जिस तलवार से महाराणा प्रताप युद्ध किया करते थे आज के मनुष्य उसे उठा भी नहीं सकते हैं।

योग की विधि- आज किसी का मन नियंत्रण में नहीं है; इसलिए जो भी यौगिक क्रियायें सिखाई जा रही हैं, उनमें आँखों को बंद कर तत्पश्चात योगाभ्यास कराया जाता है; परन्तु आँखें बंद करके याद करने का ज्ञान भगवान ने नहीं दिया। गीता के छठवें अध्याय के 13वें श्लोक में एक शब्द आया है- “संप्रेक्ष्य” अर्थात्  सम्पूर्ण खुली आँखों द्वारा योग लगाये, जैसे मीरा ने कृष्ण को याद किया। आँखें खुली होती हैं और बुद्धि से याद करती है।
अभ्यास कैसे करें - देश-विदेश में जो विभिन्न प्रकार के योग सिखाये जा रहे हैं, वह सीखने के लिए समय, स्थान, वातावरण आदि निर्धारित किया जाता है; परन्तु जो वास्तविक योग है उसे सीखने के लिए कोई प्रकार का बंधन नहीं। अगर प्रत्येक कर्म हम भगवान की याद में रहकर करेंगे तो कर्मों में कुशलता आती है। जिसके लिए गीता में बोला है- “योगः कर्मसु कौशलं।।”(2/50)
कर्मयोग - गीता में कर्मसंन्यास से कर्मयोग को विशेष अच्छा बताया है। “तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते।।” (5/2) अर्थात् कर्म के समुचित त्याग से कर्म करते-2 याद विशेष अच्छी है। किन्तु साधु-संतों ने भगवान को प्राप्त करने के लिए कर्मों से ही संन्यास करना सिखाया। आत्मा और शरीर को पीड़ा देने वाले दुखदाई दैहिक तप अर्थात् देह को तपाने वाला तामसी तप सिखाने लगे। जिससे भगवान को तो प्राप्त कर नहीं सके और खुद ही शिवोऽहम् कहलाने लगे; लेकिन भगवान की याद के लिए भगवान की यथार्थ पहचान ज़रूरी है, जो कोई मनुष्य नहीं दे सकता है। गीता में ही बताया है- “स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।।” (10/15) अर्थात् भगवान स्वयं अपना परिचय देते हैं।

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