जैन धर्म के उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। इतिहासकारों द्वारा जैन धर्म का मूल सिंधु घाटी की सभ्यता से जोड़ा जाता है। जैन धर्म जो है वो देवी-देवता सनातन धर्म की जो पुरूषार्थी आत्माएँ हैं, उनके अंतिम स्वरूप का गायन है। जैन बनता ही है जिन से, जो जैन धर्म के मुखिया हैं, उनका नाम है जिनेन्द्र। जिनेन्द्र माना जिन्होंने इन्द्रियों को जीता। तो इन्द्रियों को जीतने का काम अंतिम पुरुषार्थ में होता है; इसलिए अंतिम पुरुषार्थ का गायन है। दुनिया में एक ही धर्म संप्रदाय कहो या एक ही पंथ कहो, मठ-पंथ कहो वो जैन धर्म ही ऐसा है जो भीख माँगने वाला नहीं है। कर्मयोगी है और सब फूले-फले हैं। कोई गरीब नहीं है। कारण है “जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निधाना”। जैन मुनि इतना अलर्ट रहते हैं; इसलिए जैन धर्म की आत्मायें सुखी रहती हैं।




ऋषभदेव - जैन शास्त्रों में ऋषभदेव पहले तीर्थंकर हैं जिनके लिए कहा गया है भगवान के अवतार थे। दुनिया में कितना भी अकाल पड़े, दुकाल पड़े, बाढ़ आ जाये, कुछ भी हो जाये, जब वो पहुँच जाते थे तो वहाँ शांत स्टेज हो जाती थी, अकाल  खत्म हो जाता था, अति वृष्टि खत्म हो जाती थी। ये किसका प्रभाव है- आत्मा का प्रभाव है या किसी और का प्रभाव है? आत्मा का प्रभाव है। आत्मा को ऐसा पुरुषार्थ करके ऐसा वायुमंडल खुद ही बनाना है जिस वायुमंडल में जितनी भी आत्मा इस संगमयुग में आकर के प्रभावित हो जाएँगी, वो आत्माएँ जन्म-जन्मान्तर हमारी सहयोगी बनकर के रहेंगी।

सनातन धर्म और जैन धर्म में समानताएँ

ऋषभदेव श्वेत वस्त्र धारण करते थे परंतु भागवत में उल्लेख है- ऋषभदेव वस्त्र त्यागकर सर्वथा दिगम्बर हो गये। शिव की नग्न नटराज-रौद्ररूप की मूर्तियाँ  चित्र आदि भी मिलते हैं। इस कारण उन नग्न मूर्तियों को सनातन धर्म के अनुयायी शिव-शंकर की बताते हैं तो जैन धर्म वाले उन्हें ऋषभशिव की बताते हैं। प्रतीत होता है कि जैन धर्म कोई अलग से धर्म नहीं है। ऋषभदेव का जिक्र सनातन धर्म के शास्त्रों में भी किया गया है। सनातन धर्म और जैन धर्म में समानतायें भी मिलती हैं, जो निम्नलिखित हैं:-


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