कहते हैं हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई, आपस में भाई-2। जब सभी धर्म वाले आपस में भाई-2 हैं तो ज़रूर सभी धर्मों के माता-पिता भी एक ही हैं। जिनकी मान्यता सभी धर्मों में भी है। जैसे हिन्दू धर्म वाले शंकर-पार्वती को जगत के माता-पिता के रूप में मानते हैं वैसे ही जैनियों में आदिनाथ-आदिनाथनी का गायन है। ईसाई एडम-ईव को मानते हैं तो इस्लामी और मुस्लिम धर्म वाले आदम-हव्वा को मानते हैं। देखा जाए तो सबका मालिक एक है; लेकिन आज इंसान इस सच्चाई को भूल गया है और दुनिया में अशांति का यही मूल कारण बन गया है। अगर हमें दुनिया में सुख-शांति, अमन-चैन लाना है तो सबसे पहले हमें अपने माता-पिता को पहचानना बहुत ज़रूरी है। जब तक हम उस ऊँच-ते-ऊँच भगवान/गॉड/अल्लाह को नहीं पहचानेंगे तब तक दुख-अशांति से किसी को भी मुक्ति नहीं मिलेगी; लेकिन यही शाश्वत सत्य है कि दुनिया में एक समय ऐसा आता है जब सभी धर्म वाले उस एक ऊँचे भगवान को आखिरीन पहचान ही लेते हैं और उसी को ही अपने धर्मों के अनुसार, मान्यता देते हुए गायन-पूजन आदि करने लगते हैं।
गॉड फादर, जिसके अलग-2 नाम-रूप दे दिए हैं; लेकिन अलग-2 नाम-रूप होते हुए भी एक रूप ऐसा है जो हर धर्म में मान्यता प्राप्त करता है। कैसे? अपने भारतवर्ष में ज्योतिर्लिंगम् माने जाते हैं- रामेश्वरम् वगैरह। कहते हैं- राम ने भी उपासना की। राम को भगवान मानते हैं; लेकिन उपासना किसकी की? शिव की उपासना की। तो राम भगवान या शिव भगवान? शिव ही हुए । ऐसे ही गोपेश्वरम् मंदिर भी बना हुआ है। ‘गोप’ कृष्ण को कहा जाता है। इससे साबित हो गया कि कृष्ण भी भगवान नहीं थे। वास्तव में उनका भी कोई ईश्वर है, जिन्होंने उनको ऐसा नर से 16 कला सं. बनाया। ऐसे ही केदारनाथ है, बद्रीनाथ है, काशी विश्वनाथ है और यह सोमनाथ है। इन सभी मंदिरों में इस बात की यादगार है कि यहाँ उस निराकार ज्योति को ज्योतिर्लिंगम् के रूप में माना जाता है। नेपाल में पशुपतिनाथ का मंदिर है। कलियुग के अंत में सभी मनुष्यमात्र पशुओं जैसा आचरण करने वाले हो जाते हैं। उन पशुओं को भी पशु से या राम की सेना बंदरों से मंदिर लायक बनाने वाला वही निराकार शिवबाबा है। अच्छा, हिन्दुओं की बात छोड़ दीजिए। मुसलमान लोग मक्का में हज़ (तीर्थ यात्रा) करने जाते हैं। वहाँ मुहम्मद ने दीवाल में एक पत्थर लाकर रखा था। उसका नाम उन्होंने ‘संग-ए-असवद्’ दिया। अभी भी जब तक मुसलमान लोग उस पत्थर का चुम्बन नहीं कर लेते, सिजदा नहीं माना जाता, उनकी हज़ की यात्रा पूरी नहीं होती। इसका मतलब वे भी आज तक उस निराकार को मानते हैं, हालाँकि वे पत्थर की मूर्तियों को नहीं मानते; लेकिन वहाँ मानते हैं। बौद्धी लोग आज भी चीन-जापान में देखे जाते हैं कि वे गोल स्टूल के ऊपर पत्थर की बटिया रखते हैं और उसके ऊपर दृष्टि एकाग्र करते हैं। इससे साबित होता है कि वे भी उस निराकार को मानते हैं। गुरूनानक ने तो कई जगह कहा है- ‘एक ओंकार निरंकार’, ‘सद्गुरू अकाल मूर्त।’ वे तो निराकार को मानते ही हैं। ईसाईयों के धर्मग्रंथ बाईबल में तो कई जगह लिखा हुआ है- ‘गॉड इज़ लाइट’ अर्थात् परमात्मा ज्योति है। कहने का मतलब यह है कि हर धर्म में उस निराकार ज्योति की मान्यता है।