संगमयुग के बाद सतयुग और उसके पश्चात् त्रेतायुग का आरम्भ होता है, जिसको भारत के इतिहास का स्वर्णयुग और रजतयुग कहा जा सकता है; क्योंकि प्रत्येक मनुष्य देवी-देवता होते हैं। सतयुग में सूर्यवंशी लक्ष्मी-नारायण एवं उनके वंशजों का तथा त्रेतायुग में चंद्रवंशी सीता-राम एवं उनके वंशजों का अटल, अखंड, निर्विघ्न, सुख-शांतिमय राज्य चलता है। वहाँ केवल एक आदि सनातन देवी-देवता धर्म होता है, जो कि किसी प्रकार के बाह्य आडम्बरों से रहित, दिव्य गुण सम्पन्न जीवन जीने का एक मार्ग था। आज की परिस्थिति के विपरीत वहाँ धर्म और राज्य का अलग-2 अस्तित्व नहीं था। दोनों सत्ताएँ (धर्म सत्ता और राज्य सत्ता) लक्ष्मी-नारायण और सीता-राम के हाथों में ही थीं; इसलिए न वहाँ मंत्री की आवश्यकता थी, न राजगुरू की, न न्यायाधीश की और न सेनापति की। न वहाँ डॉक्टर थे और न वकील; क्योंकि वहाँ विकारों का नाम-निशान नहीं था। स्वर्ग में केवल एक राज्य, एक धर्म, एक मत, एक भाषा और एक कुल था और यह स्वर्ग केवल भारत में ही था या दूसरे शब्दों में, भारत ही विश्व था; क्योंकि अन्य भूखंड समुद्र में समाए हुए थे। उस भारत को ही वैकुण्ठ, बहिश्त या हैविन कहा जाता है। कल्पवृक्ष की इस अवधि को उसकी आदि कहा जा सकता है।