कल्पवृक्ष
कल्पवृक्ष

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कल्पवृक्ष- सृष्टि-रूपी कल्पवृक्ष एक अनोखा वृक्ष है; क्योंकि अन्य वृक्ष की भाँति इस वृक्ष का बीज नीचे नहीं; बल्कि ऊपर की ओर है। प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मनुष्य-सृष्टि-रूपी वृक्ष के अविनाशी और चैतन्य बीज और कोई नहीं, स्वयं परमपिता परमात्मा शिव ही हैं, जो परमधामी स्टेज में रहते हैं और उनकी रचना नीचे की ओर है। निराकारी आत्माओं का बाप परमपिता शिव, साकारी मनुष्यों का बाप प्रजापिता ब्रह्मा के मुख कमल द्वारा कहते हैं कि ‘‘मैं इस सृष्टि-रूपी कल्पवृक्ष का अविनाशी बीजरूप हूँ और जैसे सामान्य बीज में वृक्ष का सार समाया होता है उसी प्रकार मुझमें इस सृष्टि-रूपी वृक्ष के आदि, मध्य और अंत का ज्ञान है। जब यह वृक्ष जर्जरीभूत हो जाता है तो मैं ही आकर सत्य ज्ञान एवं राजयोग द्वारा फिर नए सिरे से इसका बीजारोपण करता हूँ या सैपलिंग लगाता हूँ।’’
चित्र में इस उल्टे वृक्ष को मात्र समझने के लिए सीधे रूप में दिखाया गया है। इसमें सबसे नीचे कलियुग के अंत और सतयुग के आरम्भ का संगम दिखाया गया है। कलियुग अंत में जब यह वृक्ष जर्जरीभूत हो जाता है तो स्वयं परमपिता शिव, जो इसके बीजरूप हैं, वे आदि सनातन देवी-देवता धर्म की सैपलिंग लगाने के लिए प्रजापिता ब्रह्मा के तन में प्रवेश कर उनके मुख कमल से सृष्टि के आदि, मध्य और अंत का गीता ज्ञान और राजयोग की शिक्षा देते हैं। इस ज्ञान से जगदम्बा और मुखवंशावली पवित्र ब्राह्मणों की रचना होती है, जिन्हें ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियाँ या शिवशक्ति पांडव’ भी कहते हैं। कल्प के अंत में शिव भगवान के इस अवतरण समय को ही ‘संगमयुग या गीता युग’ कहते हैं।

 

संगमयुग के बाद सतयुग और उसके पश्चात् त्रेतायुग का आरम्भ होता है, जिसको भारत के इतिहास का स्वर्णयुग और रजतयुग कहा जा सकता है; क्योंकि प्रत्येक मनुष्य देवी-देवता होते हैं। सतयुग में सूर्यवंशी लक्ष्मी-नारायण एवं उनके वंशजों का तथा त्रेतायुग में चंद्रवंशी सीता-राम एवं उनके वंशजों का अटल, अखंड, निर्विघ्न, सुख-शांतिमय राज्य चलता है। वहाँ केवल एक आदि सनातन देवी-देवता धर्म होता है, जो कि किसी प्रकार के बाह्य आडम्बरों से रहित, दिव्य गुण सम्पन्न जीवन जीने का एक मार्ग था। आज की परिस्थिति के विपरीत वहाँ धर्म और राज्य का अलग-2 अस्तित्व नहीं था। दोनों सत्ताएँ (धर्म सत्ता और राज्य सत्ता) लक्ष्मी-नारायण और सीता-राम के हाथों में ही थीं; इसलिए न वहाँ मंत्री की आवश्यकता थी, न राजगुरू की, न न्यायाधीश की और न सेनापति की। न वहाँ डॉक्टर थे और न वकील; क्योंकि वहाँ विकारों का नाम-निशान नहीं था। स्वर्ग में केवल एक राज्य, एक धर्म, एक मत, एक भाषा और एक कुल था और यह स्वर्ग केवल भारत में ही था या दूसरे शब्दों में, भारत ही विश्व था; क्योंकि अन्य भूखंड समुद्र में समाए हुए थे। उस भारत को ही वैकुण्ठ, बहिश्त या हैविन कहा जाता है। कल्पवृक्ष की इस अवधि को उसकी आदि कहा जा सकता है।


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