शिवबाबा ने मा॰ आबू में ब्रह्मा मुख से पहले ही सुनाया था कि लौकिक पढ़ाई डॉगली पढ़ाई है। मुरली (ता. 8.11.70 पृ.3 मध्य) में महावाक्य भी आया है- “उन्हों की है डॉगली सर्विस ओनली; और तुम्हारी है गॉडली सर्विस ओनली। वो तो डॉग एण्ड बीचेज बनाते हैं। तुम गॉड-गॉडेस बनाते हो।” समाज के विरोध का सामना करने के भय से ब्रह्माकुमार-कुमारियाँ इस सत्य बात को उठाती नहीं हैं और हमारे बाबा तो शिवबाबा की मुरली ही सुनाते हैं, अपना कोई बात नहीं सुनाते हैं। शिवबाबा लौकिक पढ़ाई का विरोध नहीं करते हैं; लेकिन वर्तमान समय जो शिक्षा प्रणाली है, वो पाश्चात्य शिक्षा पद्धति होने के कारण सहशिक्षा को बढ़ावा देती है, जिससे किताबी ज्ञान के साथ-ही-साथ चरित्र के पतन को भी बढ़ावा मिल रहा है। स्टूडेंट्स को आध्यात्मिक ज्ञान तो मिलता ही नहीं है। आत्मा और परमात्मा की असली पहचान न होने के कारण, पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार जो बॉडी-कांशसनेस के वायब्रेशंस हैं अर्थात् जो डॉगली वायुमंडल है, वो उसको बनाने के निमित्त बन जाते हैं। कई बार तो टीचर्स भी उन वायब्रेशंस को कंट्रोल नहीं कर पाते हैं। हमारे यहाँ भी वही शिक्षा बेसिक रूप से पढ़ाई जाती है; लेकिन पवित्र वायुमंडल में और आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-ही-साथ। डॉग कामी और व्यभिचारी होता है, वफादार भी होता है। वो तो पूँछ हिला-2 कर अपने मालिक के हर डायरैक्शन को फॉलो करता है; और मालिक? मालिक तो उसको चेन से बाँधकर आधीन बनाकर रखता है। ऐसे ही वर्तमान समय, पश्चिमी देशों की जो शिक्षा है वो नौकर बनना, आधीन बनना सिखाती है अर्थात् परावलम्बी बनना सिखाती है; इसलिए स्टूडेंट्स जो डिग्री हासिल करके निकलते हैं, वो भी किसी के अंडर में रह करके नौकरी करना ज़्यादा पसन्द करते हैं, जबकि जो ईश्वरीय राजयोग की पढ़ाई है, वो तो अनेक जन्मों के लिए राजा बनना सिखाती है। ‘ईश्वर’ का तो अर्थ ही है- ईश + वर। ईश यानी शासक और वर यानी श्रेष्ठ। ईश्वर तो खुद ही स्वतंत्रता के सम्राट, विश्वनाथ शिव-शंकर भोलेनाथ हैं, तो अपने बच्चों को भी तो आप समान बनाएगा ना! और वैसे भी हमारे देश में तो कहा ही जाता है- ‘उत्तम खेती मध्यम बान निकद चाकरी भीख निदान’।