हम देवताओं को नहीं मानते, ऐसी बात नहीं है। हम देवताओं को जानते भी हैं, मानते भी हैं और सबसे खुशी की बात तो ये है कि देवताओं को देवता बनाने वाले देवाधिदेव महादेव के द्वारा स्वयं भगवान शिव हमें देवता बनने की प्रैक्टिकल पढ़ाई पढ़ा रहे हैं। शिवबाबा के द्वारा उन सभी देवताओं की बायोग्राफी हमें मिली है; और साथ-ही-साथ भक्ति के सभी कर्मकांडों से छुटकरा भी मिला है। शिवबाबा हमें चैतन्य रूप में मिले हैं, तो हम जड़ मूर्तियों की पूजा-पाठ क्यों करें? शिवबाबा ने मुरली (9.2.71 पृ.2 आदि) में कहा भी है- ‘‘अज्ञान अंधकार की जब रात शुरू होती है, तो पहले-2 मंदिर बनते हैं, वह भी पहले एक शिवबाबा का, फिर लक्ष्मी-नारायण, राम-सीता के मंदिर बनते हैं, कलियुग आते-2 ढेर-के-ढेर हनुमान, गणेश आदि के मंदिर बनते हैं।’’ मुरली में ये भी कहा है कि 63 जन्म तुमने बहुत भक्ति की। भक्ति आती है अनेक गुरुओं से; ज्ञान आता है एक बाप से। सत्य ज्ञान मिलने से भक्ति आपे ही छूट जाती है। अभी अपने आप को आत्मा समझकर मामेकम् याद यानी साधारण तन में आए हुए एक बाप को याद करने से पतित से पावन बन जाएँगे। इसके बावजूद भी अगर कोई भक्ति करना चाहे तो हम उनकी भक्ति में बाधा नहीं डालते और ना ही उन्हें भक्ति करने से मना करते।
अव्यक्त वाणी (ता.14.7.74 पृ.109, 110) में महावाक्य आया है- भक्त जो होंगे वो कभी भी अपने आप को अधिकारी अनुभव नहीं करेंगे। उनमें अन्त तक भक्तपने के संस्कार व माँगने के संस्कार रहेंगे। आशीर्वाद दो, शक्ति दो, कृपा करो, बल दो, दृष्टि दो, आदि। ऐसे माँगने के संस्कार व आधीन रहने के संस्कार लास्ट तक उनमें देखने में आएँगे। वे सदैव जिज्ञासु रूप में ही रहेंगे। उन्हें बच्चेपन का नशा, मालिकपन का नशा और मास्टर सर्वशक्तिवान का नशा धारण कराते भी वे धारण नहीं कर सकेंगे। वे थोड़े में ही राज़ी रहने वाले होंगे। ..........भक्त कभी भी डायरैक्ट बाप के कनेक्शन में आने की शक्ति नहीं रखते हैं, वे सदा अन्य आत्माओं के सम्बन्ध में ही सन्तुष्ट रहते हैं।